खेती को खतरा बनता बदलता मौसमखेती को खतरा बनता बदलता मौसम

पंकज चतुर्वेदी

अक्तूबर और नवंबर के बाद दिसंबर का दूसरा हफ्ता भी बिना बारिश के ही बीत रहा है। खेती, जंगलों और वन्यजीवों पर भी इसका असर देखने को मिल रहा है। गेहूं, सरसों और चना जैसी रबी की फसलें अक्टूबर से दिसंबर तक बोई जाती हैं। इन फसलों को अच्छी पैदावार के लिए बढ़ने और पकने के समय ठंडे मौसम की जरूरत होती है। बारिश ना होना रबी की फसलों  खासकर गेहूं के लिए बुरा है । असल में सर्दियों की बारिश केवल पानी की जरूरत पूरा नहीं करती , बल्कि खेतों के लिए खाद का काम करती है। जिससे पौधों को नाइट्रोजन, फास्फोरस और दूसरे पोषक तत्व कुदरती रूप से मिलते हैं। इसकी पूर्ति सिंचाई करने से नहीं की जा सकती है।  उधर अक्टूबर-नवंबर के गरम रहने से आलू का अंकुरण कम हुआ है । बहुत सी जगह बोए हुए आलू के बीज पौधा बनने की जगह गर्मी से गल गए । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ने की मिठास नवंबर की गर्मी ने सोख ली । गन्ने में सुक्रोज बनने के लिए ठंड आवश्यक है लेकिन अभी तक गन्ने में पानी की मात्रा अधिक है। इसलिए गुड़ बन ही नहीं पा रहा था। एक महीने देरी से गुड़ बनना शुरू हुआ है। देश के हर हिस्से की खेती-किसानी में बदलते मौसम ने ग्रहण लगा दिया है । उधर किसान खाद –बीज के लिए ही परेशान है । समझ लें कि रबी की फसल बिगड़ने का असर सारे देश की अर्थ और भोजन व्यवस्था पर पादन तय है ।

धरती के तापनाम में लगातार हो रही बढ़ौतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत को तगड़ा प्रभावित कर रहा है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भोजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन  सांसत में है।

कृषि  मंत्रालय के  भारतीय कृषि  अनुसंधान परिषद का एक शोध सरकारी फ़ाइलों में तीन साल से बंद है जिसके मुताबिक सन 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है।  इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशु धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है। तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बैमौसम व असामान्य बारिश, तीखी गर्मी व लू, बाढ़ व सुखाड़ की सीधी मार किसान पर पड़ना है । नाबार्ड के हाल के आंकड़े बताते हैं कि खेती पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या के साथ उनकी आय का दायरा भी सिमटता जा रहा है ।

भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति, जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है । लेकिन पानी बचाने और कुपोषण व भूख से निबटने की चिंता पूरे देश में एकसमान है। हमारे देश में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी खेती में खर्च हो रहा है । तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दशकों से झेल ही रहा है । प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी, बाजरा और जई जैसे फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है।कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है और इस सन्दर्भ में । उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं। भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता। डॉ कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा।

अमेरिका के आरेजोन राज्य की सालाना जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट 2017 में चेता दिया गया था कि मौसम में बदलाव के कारण पानी को सुरक्षित रखने वाले जलाशयों में ऐसे शैवाल विकसित हो रहे हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं।  पिछले दिनो अमेरिका के कोई 60 हजार जलाशयों के जल का परीक्षण  वहां की नेशनल लेक असेसमेंट विभाग ने किया और पाया कि जब जलाशयों में मात्रा से कम पानी होता है तो उसका तापमान ज्यादा होता है और साथ ही उसकी अम्लीयता भी बढ़ जाती हे। जब बांध या जलाशय सूखते हैं तो उनकी तलहटी में कई किस्म के खनिज और अवांछित रसायन भी एकत्र हो जाते  हैं और जैसे ही उसमें पानी आता है तो वह उसकी गुणवत्ता पर विपरीत असर डालते हैं। सनद रहे ये दोनों ही हालात जल में जीवन यानी- मछली, वनस्पति आदि के लिए घातक हैं। भारत में तो यह हालात हर साल उभर रहे हैं,  कभी अल्पवर्षा तो जलाशय रीते और कभी अचानक बरसात तो लबालब।

यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपेर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे।.दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौंधों से होती है। जबकि 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है। .

शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। .रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौंधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौंधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है।.यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहां पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है।

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