ताकि सारे साल पानीदार रहे समाज !
पंकज चतुर्वेदी
इस साल मौसम ने चौंका दिया ! बैसाख में सावन की झड़ी लगा दी और अब आषाढ़ में सूरज देव का ताप चरम पर है । जिस तेजी से मानसून चढ़ा था, उसी तत्परता से थम गया । मौसम विभाग ने बताया दिया है कि देश में इस बार मानसून सीजन (जून से सितंबर) में सामान्य से ज्यादा बारिश होने का अनुमान है। मौसम विभाग ने कहा ये 106% रह सकती है। पिछले महीने इसे 105% बताया गया था। वहीं, जून महीने में भी बारिश सामान्य से ज्यादा होगी। यह किसी से छुपा नहीं हैं कि हमारे देश में गर्मी और लू के दिन जहां बढ़ रहे हैं , वहीं बरसात के दिन घटते जा रहे हैं ।
बारिश अचानक कुछ घंटे में इतनी हो जाती है कि आनंद त्रासदी में बदल जाता है और फिर जैसी ही बदरिया विदा हुई वह इलाका पानी की एक एक बूंद के लिए तरसने लगता हैं । जिस पर अब जलवायु परिवर्तन की मार देश के दूरस्थ अञ्चल तक दिख रही है । ऐसे में मानसून के आशीष को यदि सलीके से नहीँ सहेजा गया तो देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर जल-संकट का बड़ा विराम लग जाएगा ।
ध्यान रहे अच्छी बरसात का अनुमान तभी सुखद हो सकता है जब तपती धूप में श्रम के स्वेद कण सूखी धरती को अभी से गीला करें । यह स्वीकार करना ही होगा कि हमारे देश में हमारे पूर्वजों ने इस तरह की जल-निधियाँ विकसित की थीं जो न्यूनतम बरसात में लोगों की जल जरूरतों को पूरा करने में सक्षम थी, आधुनिकता की आंधी में हमने ही अपनी समृद्ध विरासतों को बिसरा दिया ।
ये लोक परंपराएं न केवल पानी की कमी से निपटने और मानसून की तैयारी करने के व्यावहारिक तरीके थीं, बल्कि ये सामाजिक बंधनों को मजबूत करने, प्रकृति के प्रति सम्मान जगाने और पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान और संस्कृति को हस्तांतरित करने का भी माध्यम थीं।
यह तीखी गर्मी एक तपस्या है और प्रायश्चित करने का अवसर भी कि जिन जल संरक्षण प्रणालियों को विकसित करने में हमारे पुरखों की कई पुश्तें लगी रहीं , उन्हें हमने कुछ ही दशक में नष्ट कर दिया । यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्त्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे।
एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्त्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है – तालाब, कुंए, बावड़ी । लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है ।
तभी बीते तीन दशक में केंद्र और राज्य की अनेक योजनाओं के तहत तालाबों से गाद निकालने, उन्हें सहेजने के नाम पर अफरत पैसा खर्च किया गया और नतीजा रहा ‘ढाक के तीन पात!’ ।
बीते दस सालों में देश को पानीदार बनाने के लिए केंद्र की तीन महत्वपूर्ण योजनाओं- हर-घर नल, अमृत तालाब और अटल भूजल परियोजना को बीते दो महीने में बहुत सी जगह औंधे मुंह गिरा देखा गया और उसका मूल कारण था कि पिछली बरसात में स्थानीय समाज और सरकार ने आकाश से बरसी अमृत बूंदों को सहेजने पर ईमानदारी नहीं बरती ।
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में औसतन 1170 मिमी पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है। देश में कोई पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं। यदि औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1.12 हैकटेयर जमीन पर तालाब बने हों तो देश की कोई एक अरब 30 करोड़ आबादी के लिए पूरे साल पीने, व अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जमा किया जा सकता है। एक हैक्टेयर जमीन पर महज 100 मिमी बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है।
देश के अभी भी अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनांए उपलब्ध हैं जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उसमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की, ठीक इसी तरह यदि इतने क्षेत्रफल के तालाबों को निर्मित किया जाए तो किसान को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा । यदि तालाब लबालब होंगे तो जमीन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा, साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे ।
इसी सोच के साथ केंद्र की अमृत तालाब योजना शुरू की थी लेकिन कहीं तकनीकी गया का अभाव तो कहीं लापरवाही के चलते योजना के माकूल परिणाम नहीं मिले । अकेले उत्तर प्रदेश में प्रदेश में 2,871 अमृत सरोवर ऐसे हैं जिनमें किसी भी मौसम में पानी नहीं रहता । सेटेलाइट सर्वे में अमृत सरोवर की हकीकत सामने आ गई । यदि अभी भी चेत जाएँ और इन सूखे तालाबों में पानी के आगम मार्ग को साफ कर दें, गाद हटा दें तो भावी जल संकट से निबट सकते हैं ।
तालाब संरक्षण की बात तो सभी करते हैं लेकिन आज जरूरी है कि छोटी नदियां , जो सूख गई या लुप्त हो गईं । उनके रास्तों को इस तपती गर्मी में सघन आकर दिया जाए । यूपी में नदियों की संख्या 1000 है, जिनका 55 हजार किलोमीटर का नेटवर्क है । उनमें से 30 हजार किलोमीटर क्षेत्र में जल घटा है या सूखा है। प्रदेश की 100 छोटी और सहायक नदियां सूख चुकी हैं।
बिहार की 50 से अधिक नदियां संकट में हैं। इनमें 32 बड़ी नदियां सूख चुकी हैं, जबकि 18 में पानी थोड़ा बचा है । ऐसा तब है जबकि इस वर्ष राज्य में प्री मानसून में सामान्य से पांच फीसदी ज्यादा (62.3 मिमी) बारिश हो चुकी है। हैरानी की बात है कि गंगा, सोन, अधवारा जैसी बड़ी नदियों में भी जल कम है।
उत्तराखंड में अल्मोड़ा-हल्द्वानी की लाइफ लाइन कोसी और गौला नदियों का जलस्तर कम हो रहा है । कोसी की कुल 21 सहायक नदियों व नालों में से 20 गर्मी में सूख जाते हैं । इन नदियों की सफाई हो, इनके किनारे के अतिक्रमण हटें । इनको गहरा किया जाए और छोटे छोटे एनिकेट डेम बना दिए जाएँ । जब इनमें पानी भरेगा तो यह संरचनाएं हरियाली भी लाएंगी और खुशहाली भी ।
आज आवश्यकता इस बात की है कि गर्मी के दो महीनों में देश में सरकार और समाज मिल कर अपनी जल निधियों के संरक्षण और गहरीकरण की व्यापक योजना बने । राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकारों ने इस साल कुछ ऐसी योजना बनाई भी लेकिन अधिकांश सरकारी तामझाम और उत्सवधर्मिता में अपने उद्देश्य तक आंशिक पहुंचीं । एक तो इस तरह की योजना के स्वरूप में समाज भी समान भागीदारी और जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाए ।
इसके तहत जल निधि के मूल स्वरूप का सर्वे, उस पर हुए अतिक्रमण या अवांछित निर्माण को हटाने या जल-आवक-निकासी के वैकल्पिक मार्ग निर्माण की योजना , स्टॉर्म वाटर संरक्षण , छोटी नदियों को स्थानीय तालाब-जोहड़ से जोड़ना , इन सभी स्थानों पर वृक्षारोपण , नदियों के किनारे गहरे भूजल रिचार्ज की व्यवस्था, शहरों में बड़ी इमारतों में रिचार्ज पिट का निर्माण आदि एकीकृत रूप में शामिल हों । जाहीर है कि इसके लिए बहुत से विभागों का समन्वित और एकजुट प्रयास जरूरी होगा ।