जल संकट समाधान की जनसहभागिता आधारित क्रांति और जल आत्मनिर्भर भारत 2047 का मार्गदर्शक मॉडलजल संकट समाधान की जनसहभागिता आधारित क्रांति और जल आत्मनिर्भर भारत 2047 का मार्गदर्शक मॉडल

जल संकट समाधान की जनसहभागिता आधारित क्रांति और जल आत्मनिर्भर भारत 2047 का मार्गदर्शक मॉडल

अजय सहाय

पानी पंचायत की अवधारणा भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में जल प्रबंधन की एक अनूठी और प्रभावशाली पहल है, जिसकी नींव वर्ष 1974 में महाराष्ट्र के पुणे जिले के मैनगांव गांव में रखी गई थी, जब गाँव के किसानों ने सामूहिक जल प्रबंधन का निर्णय लिया और जल को निजी संपत्ति के बजाय सामूहिक संपत्ति माना, जिसके बाद देश के अन्य हिस्सों में भी पानी पंचायतें अस्तित्व में आईं और 2020 के बाद ‘कैच द रेन’ तथा ‘अटल भूजल योजना’ जैसे अभियानों के तहत इसने नई पहचान बनाई।

 आज जब भारत प्रतिवर्ष लगभग 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) वर्षा जल प्राप्त करता है, जिसमें से लगभग 3200 BCM जल विभिन्न कारणों से व्यर्थ बह जाता है और मात्र 800 BCM जल का ही उपयोग हो पाता है, तब पानी पंचायत जैसी सामुदायिक संरचना वर्षा जल संचयन, जल पुनर्भरण, और जल उपयोग के क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका निभा रही है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां भूजल का स्तर 500 फीट से 4000 फीट तक गिर चुका है।

 भारत के नीति आयोग ने ‘जल आत्मनिर्भर भारत 2047’ के दृष्टिकोण में पानी पंचायत को केन्द्रीय भूमिका प्रदान की है, नीति आयोग के अनुसार जल प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी ही दीर्घकालिक समाधान है, आयोग ने वर्ष 2018 में ‘Composite Water Management Index’ (CWMI) के माध्यम से राज्यों को जल प्रबंधन में रैंकिंग दी तथा ‘State Water Action Plans’ के तहत पंचायत स्तर तक जल कार्यों की योजना बनाना अनिवार्य किया है, साथ ही भारत सरकार ने अमृत सरोवर योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY), जल जीवन मिशन, जल शक्ति अभियान तथा राष्ट्रीय जल मिशन जैसी योजनाओं में पंचायतों की सहभागिता बढ़ाने पर बल दिया है।

 महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पानी पंचायतों को कानूनी दर्जा प्रदान कर स्थानीय जल स्रोतों जैसे तालाब, कुएं, झील, नदियाँ, जलाशय, सोख्ता गड्ढा, खेत तालाब, वेटलैंड, चेक डैम तथा बांधों के प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गई है, आज जब भारत के लगभग 60% जिले जल संकटग्रस्त हैं और 2030 तक जल की मांग उपलब्धता से दोगुनी हो जाने का अनुमान है, ऐसे में पानी पंचायत का वैज्ञानिक महत्व और भी बढ़ जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से जब वर्षा जल का लगभग 1869 BCM नदियों में बह जाता है, 432 BCM भूजल में जाता है, वेटलैंड में 75-80 BCM जल संचित होता है, वनों में 90-100 BCM, नहरों में 20 BCM, परंपरागत जल स्रोतों में 80-100 BCM, सोख्ता गड्ढों में 10-15 BCM और वर्षा जल संचयन संरचनाओं में मात्र 20-25 BCM जल ही संरक्षित हो पाता है।

तब पानी पंचायतें सामूहिक रूप से वेटलैंड पुनर्जीवन, खेत तालाब निर्माण, तालाब गहरीकरण, सोख्ता गड्ढा निर्माण, नदी पुनर्जीवन, जलागम विकास, ड्रेनेज रिचार्ज, जल बंटवारा, तथा जल संग्रहण जागरूकता अभियानों के माध्यम से हर वर्ष न्यूनतम 400-500 BCM अतिरिक्त जल का संरक्षण कर सकती हैं, जिससे वर्षा जल के 3200 BCM व्यर्थ बहने वाले जल को प्रभावी ढंग से बचाया जा सकता है।

 वहीं वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार यदि प्रत्येक पंचायत वर्षा जल के 5% जल का संरक्षण करे तो भारत हर वर्ष 200 BCM से अधिक जल संरक्षित कर सकता है, जिससे सूखा, बाढ़, जल प्रदूषण, पेयजल संकट और कृषि संकट को कम किया जा सकता है, साथ ही पानी पंचायतें बाढ़ नियंत्रण में भी निर्णायक भूमिका निभा रही हैं, विशेषकर कोसी, ब्रह्मपुत्र और बागमती जैसी नदियों के क्षेत्रों में, जहाँ मानसून के दौरान 5 लाख से 20 लाख क्यूसेक तक पानी का बहाव होता है, जिससे नेपाल व भारत के अनेक जिलों में बाढ़ का संकट उत्पन्न होता है।

 पानी पंचायतें जलग्रहण क्षेत्र में ट्रेंचिंग, कंटूर बंडिंग, खेत तालाब, आहर-पइन पुनर्जीवन के माध्यम से जल गति को धीमा करती हैं, पुराने नदी मार्गों व वेटलैंड पुनर्जीवन से जल का प्रवाह फैला कर उसकी स्पीड कम करती हैं, साथ ही ड्रेनेज सुधार, जल निकासी चैनलों की सफाई व चौड़ीकरण से पानी का संतुलित बहाव सुनिश्चित करती हैं, वनों और नीम कॉरिडोर जैसे वृक्षारोपण से मिट्टी कटाव रोक कर बाढ़ की तीव्रता घटाती हैं।

जल अवरोधक वनस्पतियाँ जैसे टाइफा, जलकुंभ व हाइड्रिला बाढ़ जल की स्पीड घटाकर नमी बढ़ाती हैं, सामुदायिक जल भंडारण जैसे बड़े तालाब, चेक डैम, सोख्ता गड्ढे, खेत तालाब जल दबाव को बाँटते हैं, जिससे बाढ़ की गति कम होती है, नीति आयोग के अनुसार पानी पंचायतें जलग्रहण क्षेत्रों में 30% तक बाढ़ की गति कम करने में सक्षम हैं, वैज्ञानिक शोधों में पाया गया है कि वेटलैंड आधारित जल अवरोधक प्रति हेक्टेयर 40,000 से 1 लाख लीटर जल प्रवाह रोक सकती हैं, जिससे बाढ़ की तीव्रता नियंत्रित होती है।

 जल चेतावनी प्रणाली, ड्रोन सर्वेक्षण, जल मानचित्रण से बाढ़ पूर्व सूचना व प्रबंधन भी पानी पंचायतें करती हैं, इनका मॉडल गाँव के प्रत्येक वर्ग—किसान, महिला SHG, युवा, छात्र, श्रमिक—को जोड़ता है, जिससे जनसहभागिता के साथ जल संरक्षण व बाढ़ नियंत्रण संभव होता है, नीति आयोग के अनुसार प्रत्येक पंचायत यदि 100 करोड़ लीटर जल संरक्षित करे तो 2.6 लाख पंचायतें मिलकर हर साल 260 BCM जल बचा सकती हैं।

 वेटलैंड आधारित पंचायतें मिलकर यह आंकड़ा 500 BCM तक पहुँचा सकती हैं, जिससे भारत 2047 तक जल आत्मनिर्भर बन सकता है, जल पंचायतों के पाँच स्तंभ जल ज्ञान, जल मापन, जल संरक्षण, जल पुनः प्रयोग व सामुदायिक भागीदारी के अंतर्गत जल ऑडिट, जल बजट, जल मानचित्रण व पंचायत जल बैठकें अनिवार्य हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जल शक्ति मंत्रालय ने ‘जहाँ गिरे, वहीं संचित करें’ के सिद्धांत से पानी पंचायतों को कैच द रेन अभियान से जोड़ा है।

 मृदा स्वास्थ्य कार्ड, कृषि जल दक्षता, सूक्ष्म सिंचाई, वेटलैंड संरक्षण जैसे अभियानों में पानी पंचायतें अग्रणी हैं, इनके प्रयासों से जल संकट, बाढ़, सूखा, पेयजल संकट, कृषि संकट, जल प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता संरक्षण, ऊर्जा संरक्षण, सामाजिक समावेशन व SDG-6 जैसे वैश्विक लक्ष्यों की पूर्ति संभव हो रही है। आज पानी पंचायतें जल चेतना रथ, ड्रोन सर्वेक्षण, जल संवाद, जल मेला, जल संसद, जल ऐप्स, जल चैलेंज, जल प्रशिक्षण, जल मानचित्रण जैसी गतिविधियों से युवाओं को जोड़कर जल आंदोलन की रीढ़ बन चुकी हैं, जिससे भारत में जल प्रबंधन की सबसे मजबूत सामाजिक संरचना तैयार हुई है, इसलिए स्पष्ट है कि पानी पंचायतें जल संकट समाधान, बाढ़ नियंत्रण और जल आत्मनिर्भर भारत 2047 के लिए सामुदायिक शक्ति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जनभागीदारी का श्रेष्ठतम उदाहरण हैं, जो हर गाँव और पंचायत को जल संकट से मुक्त करने में सक्षम हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *