दावा 68 हजार से अधिक तालाब बनाने का, पर अधिकतर फोटो में ही नजर आ रहे
पंकज चतुर्वेदी
केन्द्र सरकार की “अमृत सरोवर योजना” का दिसंबर 2023 में समापन हो चुका है। विज्ञापन, दावे हैं कि इस योजना के अंतर्गत 50 हजार तालाबों को तैयार करने का लक्ष्य था जबकि इससे कहीं ज्यादा 68 हजार से अधिक तालाब बना दिए गए। इससे 68 हजार करोड़ क्यूबिक मीटर पानी सहेजने की क्षमता पा ली गई। मतलब, देश के कुल 735 जिलों में 10,419.38 करोड़ खर्च कर एक एकड़ क्षेत्रफल और 10,000 घन मीटर क्षमता वाले 68,849 तालाब खोद दिए गए। मिशन अमृत सरोवर 24 अप्रैल 2022 को लॉन्च किया गया। इसे 15 अगस्त 2023 को पूरा होना था लेकिन समापन दिसंबर 2023 में किया गया। वैसे, अब मिशन की वेबसाइट पर तालाबों की संख्या तो आती है लेकिन उस पर हुए खर्च का ब्यौरा गायब है।
तालाब पारंपरिक जल स्रोत हैं जो पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित फेमिन इनक्वायरी कमीशन ने कहा था कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। सच्चाई यह है कि हमने पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना- जल संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी- हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे।
लेकिन करीब डेढ़ साल चले मिशन अमृत सरोवर के दावे धरातल पर तो नजर नहीं आ रहे। प्यास और पलायन के लिए कुख्यात बुंदेलखंड के ललितपुर जिले में करोड़ों रुपये खर्च कर दो साल बाद भी 182 में से 52 अमृत सरोवरों का कायाकल्प नहीं हो सका जबकि सरकारी दावा है कि छह ब्लॉकों के करीब 130 तालाबों का काम पूरा हो चुका है। छह ब्लॉकों के प्रत्येक गांव से एक-एक सरोवर का चयन करना था। वैसे भी, यहां हर गांव में पुराने पोखर, तालाब तो थे ही। उन्हें कुछ खोदा गया, कुछ की दीवार बनाई और उन्हें अमृत सरोवर नाम दे दिया गया। निर्धारित समय सीमा अगस्त 23 को बीते एक साल हो गए लेकिन 52 के करीब अमृत सरोवर अभी अधूरे हैं। इन सरोवरों के आसपास पौधरोपण तो किए गए लेकिन देखरेख के अभाव में पौधे सूख चुके हैं। भरी बरसात में भी तालाब की तली दिख रही है।
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड की चार पंचायतों- विशुनपुर, सरैया, बैजलपुर कमलपुरा और खुटाही में अमृत सरोवर योजना के तहत विकसित किए गए पांच पोखरों पर करीब 50 लाख रुपये खर्च किए गए। इनमें कम-से-कम 10 से 12 हजार घन फुट पानी भंडारण की व्यवस्था बनाई गई थी। लेकिन एक को छोड़कर सभी चार पोखर स्वयं पानी के लिए तरस रहे हैं।
मध्य प्रदेश के विदिशा जिले की तहसील सिरोंज जनपद क्षेत्र के ग्राम पंचायत सरेखो में करीब 38 लाख रुपये की लागत से बनाए दो अमृत सरोवर का मीडिया में जमकर प्रचार हुआ था, पर ये तालाब एक बारिश भी नहीं झेल पाए और धराशायी हो गए। इससे कई गांवों में पानी भर गया। छत्तीसगढ़ के दुर्ग में तो पुराने ठगड़ा बांध में ही कागजों पर अमृत सरोवर बन गया। दरअसल, जब वहां भारत माला परियोजना के लिए मुरम खुदाई के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र की बात आई, तो पता चला कि पुराने बांध में तालाब खोदने के कागज भर दिए गए। ये सब तो कुछ बानगी भर हैं जिनसे पता चलता है कि अमृत सरोवर के नाम पर किस तरह लिपाई-पुताई की गई है।
सरोवर तैयार करना अपने आप में जटिल प्रक्रिया है। उसके लिए स्थान का चयन पारंपरिक जल-आगम, मिट्टी के मिजाज, स्थानीय जलवायु आदि के अनुरूप होना था। जरा सोचें, देश में 68 हजार से अधिक तालाब जिनकी माप यदि प्रत्येक तालाब औसतन एक हेक्टेयर और दस फुट गहराई की भी हुई तो 27 अरब क्यूबिक लीटर क्षमता का विशाल भंडार होना चाहिए। एक हेक्टेयर, यानी 10 हजार मीटर, दस फुट, यानी 3.048 मीटर, हर तालाब की क्षमता 30 हजार वर्ग मीटर। एक हजार लीटर जल, यानी एक क्यूबिक मीटर। जाहिर है, हर तालाब में 30 हजार क्यूबिक मीटर जल होगा और सभी 68 हजार सरोवर जमीन पर हों, तो हम पानी पर पूरी तरह स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भर बन सकते थे।
देश में सालाना औसतन 1,170 मिलीमीटर पानी आसमान से बरसता है। देश में कोई पांच लाख 87 हजार गांव हैं। औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज एक-डेढ़ हेक्टेयर जमीन पर तालाब बने हों, तो कोई एक अरब 30 करोड़ आबादी के लिए पूरे साल पीने और अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जमा किया जा सकता है। एक हेक्टेयर जमीन पर महज 100 मिलीमीटर बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है।
सन 1950-51 में लगभग 17 प्रतिशत खेत (कोई 36 लाख हेक्टेयर) तालाबों से सींचे जाते थे। आज के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाब से सिंचाई का रकवा घटकर 17 लाख हेक्टेयर, अर्थात महज ढाई प्रतिशत रह गया है। इनमें से भी दक्षिणी राज्यों ने ही अपनी परंपरा को सहेज कर रखा। हिन्दी पट्टी के इलाकों में या तो मिट्टी से भर कर तालाबों पर निर्माण कर दिए गए या फिर तालाबों को घरेलू गंदे पानी के नाबदान में बदल दिया गया। तब भी अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनाएं उपलब्ध हैं। जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उसमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की। यदि इतने क्षेत्रफल के तालाब निर्मित किए जाएं तो किसान को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा और जमीन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा, साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे।
अमृत सरोवर योजना देखने में बहुत लुभावनी थी लेकिन क्रियान्वयन के नाम पर उसे बस जल्दी से आंकड़े भरने और बजट खर्च करने का जरिया बना दिया गया। यह तक हुआ कि पानी दिखाना था, तो देश के पहले अमृत सरोवर का तमगा लूटने के लिए उत्तर प्रदेश के रामपुर में एक शहरी तालाब में मई की तपती गर्मी में ही टैंकरों से पानी भरवाकर फोटो खिंचवा दिए गए। और ऐसे काम में तो हमें महारत हासिल हो ही गई है!