इंद्रावती: लोकगाथा, लोकसाहित्य और बस्तर की जलसंस्कृति का जीवंत संगमइंद्रावती: लोकगाथा, लोकसाहित्य और बस्तर की जलसंस्कृति का जीवंत संगम

छत्तीसगढ़ की इंद्रावती नदी

डॉ. रुपेन्द्र कवि

नदियाँ जब केवल जलधारा न रहकर संस्कृति की वाहक, लोक स्मृति की रक्षक और समूह-मानवता की चेतना बन जाती हैं, तब वे केवल भौगोलिक नहीं, साहित्यिक-सांस्कृतिक इकाई भी हो जाती हैं। छत्तीसगढ़ की इंद्रावती नदी इसी प्रकार की एक जलसंस्कृति है, जो बस्तर की लोकगाथाओं, जनपदीय साहित्य, और आदिवासी जीवन-धारा में रची-बसी है। यह आलेख इंद्रावती को लोकसाहित्य के संदर्भ में पुनर्परिभाषित करने का एक विनम्र प्रयास है।

1. इंद्रावती का भूगोल: जल से जन तक

इंद्रावती नदी का उद्गम ओडिशा के कालाहांडी जिले में स्थित डंडकारण्य की पहाड़ियों से होता है। यह लगभग 535 किमी की यात्रा में छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र से होते हुए महाराष्ट्र और फिर तेलंगाना में गोदावरी से मिलती है। चित्रकोट जलप्रपात इसकी पहचान है — किंवदंती, काव्य और कैमरे का चहेता दृश्य।

नदी के प्रवाह ने बस्तर की आदिवासी बस्तियों को रचने, बसाने और संवारने का कार्य किया है। इसके किनारों पर कुँडुख, गोंड, हल्बा और मुरिया जनजातियाँ आज भी जल के साथ एक जीवंत संवाद में जीती हैं।

2. लोकगाथाओं में इंद्रावती: स्त्री चेतना और जल का विमर्श

बस्तर की लोकगाथाओं में इंद्रावती देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। एक प्रमुख कथा अनुसार, देव इंद्र अपनी पत्नी इंद्राणी को छोड़कर एक युवती उदंती के प्रेम में पड़ गए। जब यह अपमान इंद्राणी को ज्ञात हुआ, तो उन्होंने स्वयं को एक नदी के रूप में रूपांतरित कर लिया और प्रण लिया कि वे कभी इंद्र और उदंती को मिलने नहीं देंगी। आज भी इंद्रावती और उदंती नदियाँ कभी संगम नहीं बनातीं।

यह गाथा मात्र दांपत्य त्रिकोण की नहीं, बल्कि लोक मानस में स्त्री आत्मबल, आत्मरक्षा, और जलस्वरूपा नारी की गूढ़ सांस्कृतिक स्थापना है। यह कथा पंडवानी, लोरिकायन, और लोकनृत्य में विविध रूपों में अभिव्यक्त होती है।

3. लोकसाहित्य में नदी की उपस्थिति

छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य — विशेषतः वाचिक परंपरा, लोकगीत, गाथा-काव्य और दंतकथाओं में इंद्रावती का नाम आदरपूर्वक आता है।

“इंदरा बहे रे इंद्रावती, संग ले जाय संगी सुधि।”

(– जनजातीय लोकगीत)

यह पंक्ति न केवल जल की प्रवाहमयी स्मृति को, बल्कि प्रेम, वियोग और प्रस्थान को भी संकेत करती है। बस्तर अंचल के विवाह गीतों में इंद्रावती को साक्षी रूप में पुकारा जाता है।

4. लोकसंस्कृति और नदी का संवाद

नदी का संस्कृति से संवाद बहुआयामी है:

कृषि: इंद्रावती की धाराएं खेतों को सिंचने का माध्यम हैं।

रीति-रिवाज: विवाह, मृत्यु, और त्योहारों में नदी का स्नान, पूजा और प्रवाह अनिवार्य है।

नाचा और परब: जनजातीय नृत्य-नाट्यों में नदी से जुड़े देवी-देवताओं को नमन कर नृत्य प्रारंभ किया जाता है।

यह नदी न केवल पानी की बल्कि आस्था की वाहक है।

5. समकालीन संकट और लोक चेतना की आवश्यकता

वर्तमान में इंद्रावती गंभीर संकटों से गुजर रही है:

बांध और परियोजनाएँ – जैसे कुटरु और भोपालपट्टनम परियोजनाओं ने प्राकृतिक संतुलन पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया।

प्रदूषण और रेत उत्खनन – नदी की पारिस्थितिकी और प्रवाह खतरे में है।

बोध मछली जैसे जैव संपदाओं का लोप – पारंपरिक मछुआरों की आजीविका पर संकट।

इन संकटों के समाधान में केवल पर्यावरणीय नीति ही नहीं, बल्कि लोक चेतना, सांस्कृतिक पुनःस्मरण और स्थानीय सहभागिता ही प्रमुख भूमिका निभा सकती है।

6. निष्कर्ष: जल को समझने का लोक साहित्यिक दृष्टिकोण

इंद्रावती केवल एक भौगोलिक नदी नहीं, अपितु जल, जन और जनसंस्कृति की त्रिवेणी है। लोकगाथाओं में उसकी उपस्थिति प्राकृतिक सत्ता और नारी चेतना दोनों का प्रतीक है। जब तक यह नदी बस्तर की धरती पर बहती रहेगी, तब तक लोककथाओं में वह एक देवी, एक मातृशक्ति और एक सांस्कृतिक आधार के रूप में जीवित रहेगी।

मानव वैज्ञानिक, साहित्यकार, एवं लोकहितकारी सामाजिक विचारक।

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