वेटलैंड का वैज्ञानिक और पारिस्थितिक महत्व: कार्बन अवशोषण से ऊर्जा चक्र तक की एक समग्र विवेचनावेटलैंड का वैज्ञानिक और पारिस्थितिक महत्व: कार्बन अवशोषण से ऊर्जा चक्र तक की एक समग्र विवेचना

वेटलैंड का वैज्ञानिक और पारिस्थितिक महत्व

अजय सहाय

वेटलैंड्स अर्थात् आर्द्रभूमियाँ, पारिस्थितिक तंत्र का ऐसा महत्वपूर्ण भाग हैं जो न केवल जैव विविधता के लिए आश्रय स्थल हैं, बल्कि पृथ्वी के वायुमंडलीय संतुलन, जलवायु परिवर्तन नियंत्रण और पर्यावरणीय सेवाओं का प्रमुख स्तंभ भी हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से वेटलैंड्स प्राकृतिक कार्बन सिंक (Carbon Sink) के रूप में कार्य करते हैं, जहाँ वे वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2 ) को अवशोषित कर लंबे समय तक अपनी जलसंग्रहण प्रणाली, वनस्पतियों, और गादयुक्त ऑक्सीजनरहित मिट्टी में स्थिर करके संरक्षित रखते हैं।

 वेटलैंड की सतह पर उगने वाली जलीय वनस्पतियाँ जैसे टाइफा (Typha), हाइड्रिला (Hydrilla), वलिसनेरिया (Vallisneria), ऐकॉर्निया (Eichhornia) प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) की प्रक्रिया द्वारा दिन के समय वायुमंडलीय CO2 को अपने क्लोरोप्लास्ट में अवशोषित कर शर्करा और ऑक्सीजन में परिवर्तित करती हैं। यह ऑक्सीजन न केवल वायुमंडल में छोड़ दी जाती है, बल्कि वेटलैंड जल में घुलकर मछलियों, सूक्ष्मजीवों और अन्य जलीय जीवों के लिए जीवनदायिनी होती है।

वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, भारत में कुल वेटलैंड क्षेत्र लगभग 7.75 लाख हेक्टेयर है (ISRO, 2023) जो देश के कुल क्षेत्रफल का 4.6% है। एक हेक्टेयर वेटलैंड प्रतिवर्ष लगभग 6.1 टन कार्बन डाइऑक्साइड को स्थिर रूप में अवशोषित करता है, अतः भारत के वेटलैंड्स प्रतिवर्ष लगभग 47.27 लाख टन (4.727 मिलियन टन) CO2 अवशोषित करते हैं और औसतन 2 टन ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिससे 15.5 लाख टन (1.55 मिलियन टन) ऑक्सीजन हर वर्ष वायुमंडल में जाती है।

 इसके अतिरिक्त, वेटलैंड की गीली, जैविक तत्वों से समृद्ध मिट्टी में ऑक्सीजन की न्यूनता के कारण वहां ऑक्सीकृत अपघटन की बजाय एनेयरोबिक (अवायुजनित) अपघटन होता है, जिससे कार्बन लंबे समय तक गाद में संरक्षित रहता है। इसी प्रक्रिया के कारण वेटलैंड्स को “ब्लू कार्बन सिस्टम”कहा जाता है, जो समुद्री तटीय पारिस्थितिकी में महत्वपूर्ण होता है।

एक हेक्टेयर वेटलैंड प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख लीटर जल को शुद्ध करता है, जिससे भारत के वेटलैंड्स मिलकर प्रतिवर्ष 775 अरब लीटर (77.5 BCM) जल को शुद्ध करते हैं। वर्षा जल संचयन की दृष्टि से देखा जाए तो एक हेक्टेयर वेटलैंड 40 लाख लीटर वर्षा जल भंडारित कर सकता है, जिससे भारत के वेटलैंड्स की कुल वर्षा जल संचयन क्षमता 310 अरब लीटर (310 BCM) मानी गई है। पारिस्थितिक ऊर्जा चक्र की दृष्टि से वेटलैंड्स में ऊर्जा का स्रोत सूर्य है, जिससे पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से प्राथमिक उत्पादकता होती है। पौधों की जैविक सामग्री को घोंघे, कीड़े, मछलियाँ, पक्षी, और सूक्ष्मजीव भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं।

यह ऊर्जा चक्र प्राथमिक उपभोक्ता → द्वितीयक उपभोक्ता → अपघटक (Decomposers) के रूप में संचालित होता है। वेटलैंड में उपलब्ध डिट्रिटस (decomposing plant material) को विघटित करने में माइक्रोबियल एक्टिविटी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वेटलैंड की मिट्टी और पानी में पाई जाने वाली बैक्टीरिया, फफूंद, और आर्किया जैसे सूक्ष्मजीव जैविक अपशिष्टों को विघटित कर पोषक तत्वों में बदलते हैं, जिससे जल की गुणवत्ता सुधरती है और नाइट्रोजन-फॉस्फोरस चक्र सुचारु रहता है।

माइक्रोबियल प्रोसेस जैसे डिनिट्रीफिकेशन (denitrification), सल्फेट रिडक्शन (sulfate reduction), और मिथेनोजेनेसिस (methanogenesis) वेटलैंड के जल में ऑक्सीजन, नाइट्रेट, सल्फेट, और अन्य तत्वों के संतुलन को बनाए रखते हैं। उदाहरण के तौर पर, टाइफा के आसपास पाई जाने वाली Pseudomonas और Bacillus जैसी बैक्टीरिया नाइट्रेट को नाइट्रोजन गैस में परिवर्तित कर जल को नाइट्रोजन प्रदूषण से मुक्त करते हैं।

इसी तरह, हाइड्रिला के आसपास पाए जाने वाले माइक्रोब्स मृत जैविक पदार्थों को विघटित कर उन्हें अमोनिया व फॉस्फेट में परिवर्तित कर पौधों के लिए उपलब्ध कराते हैं। ये सभी प्रक्रियाएं मिलकर nutrient recycling की एक वैज्ञानिक श्रंखला बनाती हैं। वहीं, वेटलैंड में उपस्थित ऑक्सीजन छोड़ने वाली वनस्पतियाँ केवल वायुमंडल ही नहीं, बल्कि जलीय पारिस्थितिकी में डिस्सॉल्व्ड ऑक्सीजन (DO) का स्तर बनाए रखती हैं, जो मछलियों, शैवाल, और जल में रहने वाले जीवों के लिए अनिवार्य है।

 जब जल में ऑक्सीजन की अधिकता होती है, तब जलकुंभी जैसी अवांछित वनस्पतियाँ नियंत्रित रहती हैं, और जल की पारदर्शिता बेहतर होती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह भी प्रमाणित हुआ है कि वेटलैंड का pH स्तर सामान्यतः 6.5 से 7.5 के बीच होता है जो सूक्ष्मजीवों की वृद्धि के लिए अनुकूल होता है। इस कारण वेटलैंड्स में बैक्टीरियल बायोफिल्म, एल्गल मैट, और फाइटोप्लांकटन की उपस्थिति ऊर्जा चक्र को सुदृढ़ करती है।

 वेटलैंड ऊर्जा चक्र में एक अन्य पहलू सौर विकिरण के अवशोषण से भी जुड़ा होता है, क्योंकि वेटलैंड की जल सतह पर उगने वाले पौधे और काई (mosses) सौर ऊर्जा का उपयोग करते हुए कार्बनिक उत्पादन करते हैं, जो अन्य जीवों को पोषण देते हैं। वहीं, वेटलैंड के तल में उपस्थित अपघटक जीव (decomposers) मृत पौधों और पशु अवशेषों को विघटित कर वातावरण में फिर से कार्बन छोड़ने की बजाय उसे मिट्टी में स्थिर करते हैं, जिससे ग्रीनहाउस गैसों का संतुलन बना रहता है।

जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में वेटलैंड का यह गुण CO2  स्थिरीकरण + O2  रिलीज + GHG अवशोषण तीनों को एक साथ संबोधित करता है। 2022 में ISRO द्वारा किए गए उपग्रह विश्लेषण में यह सिद्ध हुआ कि भारत के प्रमुख वेटलैंड जैसे सुंदरबन, लोकटक, कबरताल, गोगाबिल, और चिल्का प्रतिवर्ष मिलकर लगभग 4.9 मिलियन टन CO2  अवशोषित करते हैं, जो देश के कुल कार्बन सिंक का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

इसके अतिरिक्त, वेटलैंड की वनस्पतियाँ जैसे नीम, पीपल, बरगद वायु को शुद्ध करते हैं और उनके नीचे बैक्टीरियल माइक्रोबायोम वायुमंडलीय प्रदूषकों को भी अवशोषित करते हैं। पीपल का पेड़ 24 घंटे ऑक्सीजन छोड़ता है, क्योंकि उसकी CAM प्रकाश संश्लेषण पद्धति रात्रि में भी सक्रिय रहती है। अतः वेटलैंड का वैज्ञानिक एवं पारिस्थितिक महत्व केवल जैव विविधता तक सीमित नहीं, बल्कि यह संपूर्ण पारिस्थितिक संतुलन, जलवायु स्थिरता, और पृथ्वी के ऊर्जा चक्र का मूलभूत अंग है।

यदि भारत 2047 तक जलवायु और पारिस्थितिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना चाहता है, तो वेटलैंड्स को केवल संरक्षित करना ही नहीं, बल्कि उन्हें प्राकृतिक प्रयोगशालाओं और कार्बन बैंक के रूप में पुनर्स्थापित करना होगा, जहाँ विज्ञान, पारिस्थितिकी और सामुदायिक भागीदारी का संगम हो। इसके लिए MGNREGA के माध्यम से पौधारोपण, बायोडायवर्सिटी यूनिट, जल निकासी सुधार, और वेटलैंड माइक्रोबियल संतुलन बनाए रखने हेतु स्थानीय तकनीकों का प्रयोग कर एक नई जैविक क्रांति संभव है।